Tuesday, 14 October 2008

आज का आकाश बांधो ...

शुक्ल-पक्षी रात का, जादू घनेरा हो गया ।
कौन चुपके से तुम्हारा , दुध से मुंह धो गया । ।

गंध किसलय पी समीरण
फिर रहा है तन उघारे
छू रहे तुमको सहम कर
सांस झोंके ये बेचारे

मेरे हाथों हाथ तेरा ,शशक - शावक हो गया ।
कौन चुपके से तुम्हरा , दूध से मुंह धो गया । ।

आबनूसी केश बांधो
अब हया की रेख लान्घो
मत होंठ चाबो कुनमुना कर
आज का आकाश बांधो

उर्मियों मैं झील की ,को संगमरमर धो गया ।
कौन चुपके से तुम्हारा , दूध से मुंह धो गया । ।




1 comment:

Vinay said...

कविता का अंदाज़ बहुत सुन्दर है!

---मेरा पृष्ठ
तख़लीक़-ए-नज़र